उत्तर वैदिक काल (Post Vaidik Period)

 

उत्तर वैदिक काल

ऋगवेदिक काल के उपरांत जब यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद और ब्राम्हण ग्रंथों, आरण्यकों एवं उपनिषदों के रचना काल को उत्तर वैदिक काल कहा जाता है। उपरोक्त वेदों में ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमुख स्थान अथर्ववेद का है।

तकनीकी विकास की दृष्टि से यह वही काल है जब उत्तर भारत में ‘‘ लौह युग ’’ का सूत्रपात हुआ। लोहे के अर्थ में श्याम अयस या कृष्ण अयस का उल्लेख वैदिक साहित्य में प्राप्त होता है। पंजाब, हरियाण, राजस्थान तथा प0 उत्तर प्रदेश से प्राप्त चित्रित धूसर पात्र  तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार आदि से प्राप्त मिट्टी के काले पोलिश्ड पात्र का साम्य उत्तर वैदिक काल से स्थापित किया गया है। उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी का प्रमुख स्त्रोत ‘‘ साहित्यिक स्त्रोत  ’’ ही है।

भौगोलिक विस्तार :-

इस काल में आर्यों ने पूर्व तथा दक्षिण की ओर विस्तार किया तथा सभ्यता का प्रमुख केन्द्र मध्य देश हो गया। अगस्त्य तथा परशुराम का इतिहास आर्यों के दक्षिण भारत में प्रवेश का द्योतक है। इस काल में पंजाब के आर्यों को हेय समझा जाने लगा। (शतपथ एवं एतरेय ब्राम्हण से)

संभवतः दक्षिण भारत में आंध्र, शबर तथा पुलिन्द जातियों की सत्ता बने रहने से उत्तर वैदिक सभ्यता उत्तर भारत मुख्यतः सरस्वती नदी तट पर सीमित रह गई।

शक्तिशाली राज्यों का विकास :-

आर्यों के विस्तार स्वरूप पुराने कबीले लुप्त हो गए। तथा ऋग्वैदिक कालीन राज्य की इकाईयां छोटे छोटे जनों से मिल कर नए जनपदों का उदय होने लगा।

उदाहरण के लिए :- पुरू तथा भरत कबीला मिल कर कुरू एवं तुर्वषु तथा क्रिवि कबीला या जन मिल कर पंचाल कहलाए।

इस काल में राजनैतिक संघर्ष तीव्र होता गया। अश्वमेघ तथा राजसूय यज्ञ प्रतिष्ठा के प्रतीक बन गए। जैसे : शतपथ ब्राम्हण में भरतों के दो राजाओं, दौष्यंति तथा शतानिक सात्राजीत के अश्वमेध यज्ञ वर्णित हैं। इसी ब्राम्हण में वर्णित एक गाथा के अनुसार ‘‘ भरतों की सी महत्ता, भूत या भविष्य में किसी को प्राप्त नहीं होगी। ’’ शतपथ ब्राम्हण में ही विभिन्न राजाओं द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञों का वर्णन मिलता है। ऐतरेय ब्राम्हण में भी 12 ऐसे राजाओं का उल्लेख है जिन्होंने अश्वमेध यज्ञ कराए हैं। मगध में निवास करने वाले लोगों को अथव्रवेद में व्रात्य कहा गया है। पांचाल, इस युग का सर्वाधिक विकसित राज्य था। जिसे वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा गया है।

राजनैतिक संगठन :-

उत्तर वैदिक काल में राजतंत्र ही शासन तंत्र का आधार था। सर्वप्रथम ऐतरेया ब्राम्हण में ही राजा की उत्पत्ति का सिद्धांत मिलता है, जिसमें असुरों से पराजित होने के बाद देवता इन्द्र को अपना राजा चुनते हैं।

राजा :-

राजा का पद दैवीय था। राजा का निर्वाचन भी होता था किन्तु प्रायः यह पद वंशानुगत था। अथर्ववेद में प्रजा द्वारा राजा के निर्वाचन का उल्लेख प्राप्त होता हैं । राजसूय यज्ञ संपादित कर राजा सभी दण्डों से मुक्त हो कर कानून का स्वामी हो जाता था। राजा को धर्म भीरू होते हुए प्रजापालक होना आवष्यक था। ताण्ड्य ब्राम्हण में प्रजा द्वारा राजा के विनाश हेतु यज्ञ का उल्लेख प्राप्त होता है। इस काल में राजा को भूमि पर अधिकार नहीं था यद्यपि वह कानून स्वामी होने के नाते किसी भी व्यक्ति को भूति से वंचित कर सकता था। राजा, प्रजा से भूमि से प्राप्त आय का छठवां भाग बलि, शुल्क तथा मात्र के रूप में प्राप्त करता था।

प्रशासनिक अधिकारी :-

प्रषासनिक अधिकारियों को शतपथ ब्राम्हण में रत्निन कहा गया है, जिनकी संख्या 12 वर्णित है। राजा को इन्हें राजसूय यज्ञ के दौरान समर्थन प्राप्त करने हवि देना होता था।

क्रं0

अधिकारी

कार्य

1.

सूत

रथ चालक

2.

संग्रहीता

राजकोष संचालक

3.

अक्षवाय

द्युतक्रीड़ा का प्रधान

4.

तक्षक

बढ़ई

5.

क्षतृ /कंचुकी/

राजमहल की देख रेख की प्रधान महिला अधिकारी

6.

भागदुध

कर संगगग्रह कर्त्ता

7.

पालागल

विदूषक तथा राजा का मित्र

8.

गोविकर्त्ता

जंगल विभाग का प्रधान

9.

पुरोहित

धार्मिक कृत्य कराने वाला तथा प्रमुख अधिकारी

10.

सेनानी

सेना का प्रधान

11.

ग्रामणि

ग्राम का प्रधान

12.

महिषी

पटरानी

 

सभा तथा समिति :-

राजा के अधिकारों में हुई वृद्धि ने सभा तथा समिति का प्रभाव सीमित कर दिया था। अथर्ववेद तथा शतपथ ब्राम्हण में सभा तथा समिति को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है। इस समय विदथ का उललेख प्राप्त नहीं होता है।

सभा :- यह एक ग्राम संस्था थी जो ग्राम के विवादों को निपटाती थी। शतपथ ब्राम्हण के अनुसार इसमें राजा भी भाग लेता था। अथर्ववेद में इसे नरिष्ठा भी कहा गया है। नरिष्ठा का अर्थ : सामूहिक वाद विवाद होता है।उत्तर वैदिक काल में सभा में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित हो गया था।

समिति :- यह एक केन्द्रीय संस्था थी जिसमें राजा की अध्यक्षता में कोई भी निर्णय वाद विवाद के उपरांत ही लिया जाता था।

न्याय प्रशासन :- कानून का सर्वोच्च पद राजा था। न्यायाधीश को स्थपति कहा जाता था। सम्पत्ति पर स्त्री का अधिकार इस युग में समाप्त कर दिया गया था। चोरी, डकैती, व्यभिचार एवं हत्या प्रमुख अपराध थे। ग्राम स्तर पर होने वाले छोटे मोटे विवादों को सुलझाने हेतु ग्राम्यवादिन नामक अधिकारी होता था। न्याय की दिव्य प्रथा प्रचलित थी।

सामाजिक जीवन :-

परिवार :- पितृ प्रधान संयुक्त परिवार होते थे।

वेश भूषा :- नीवी, वास तथा अधिवास

वर्ण व्यवस्था :- वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित पैतृक हो गई। सर्व प्रथम ऐतरेय ब्राम्हण में चारों वर्णों के कर्म के विषय में वर्णन प्राप्त होता है। सर्वप्रथम इसी काल में गोत्र व्यवस्था की शुरूवात हुई थी। शतपथ ब्राम्हण में एक स्थान पर क्षत्रिय को ब्राम्हण से श्रेष्ठ बताया गया है।

आश्रम व्यवस्था :- आश्रम व्यवस्था का सर्वप्रथम उल्लेख जाबालोपनिषद से प्राप्त होता है। जिसमें चार आश्रमों का वर्णन है।

सोलह संस्कार :-

कं0

संस्कार

कारण

1

गर्भाधान :

 

2

पुंसवन :

पुत्र प्राप्ति की कामना से

3

सीमंतोन्ननयन

गर्भस्थ शिशु की रक्षा हेतु विष्णु वंदना

4

जात कर्म :

शिशु के जन्म पर

5

नामकरण :

शिशु की पहचान हेतु

6

अन्न प्राशन :

छः माह के शिशु को पहली बार अन्न चखाना

7

चूड़ाकर्म :

मुण्डन कार्य

8

उपनयन :

बालक यज्ञोपवीत धारण कर ब्रम्हचर्य या विद्यार्थी जीवन में प्रवेष करता है। तेतरेय ब्राम्हण के अनुसार ब्राम्हण, बसंत ऋतु में सूत, क्षत्रिय, ग्रीष्म ऋतु में सन तथा वैष्य शीत ऋतु में उन का यज्ञोपवीत धारण करे।

9

कर्णभेद :-

 

10

विद्यारंम्भ :-

 

11

वेदारंभ :-

 

12

केशान्त :-

जब विद्याध्ययन पूर्ण हो जाता है तब गुरुकुल में ही केशान्त संस्कार सम्पन्न होता है।

13

समापर्वतन :-

 विद्यार्थी जीवन की समाप्ति पर, वर्तमान समय में दीक्षान्त समारोह, समावर्तन संस्कार जैसा ही है।

14

विवाह :-

 

15

निष्क्रमण :-

 

16

अंत्येष्टि :-

 

 

स्त्रियों की स्थिति :-

इस काल में स्त्री संबंधी कुप्रथाएं आरंभ नहीं हुई थीं। प्रायः एक पत्नी विवाह होता था तथा बहु पत्नीत्व केवल कुलीन वर्ग में प्रचलित था।

·      बाल विवाह का प्रचलन नहीं था।

·      विवाह पर पुत्री के पिता द्वारा दहेज दिया जाता था।

·      विधवा विवाह के उल्लेख भी साहित्य से प्राप्त होते हैं।

·      सती प्रथा का प्रचलन नहीं था।

·      पर्दा प्रथा नहीं थी।

तथापि ऋग्वेद काल की तुलना में स्त्री दशा सोचनीय थी। अब स्त्री एक सम्पत्ति का रूप बन चुकी थी। विभिन्न ग्रंथों के अनुसार स्त्री के प्रति विचार निम्नानुसार थेः-

          शतपथ ब्राम्हण : स्त्री, पुरूष की अर्द्धांगिनी है।

          वशिष्ठ धर्मसूत्र : पत्नी किसी भी स्थिति में तज्य नहीं है।

          ऐतरेय ब्राम्हण : एक अच्छी स्त्री वह है, जो उत्तर नहीं देती। ‘‘ पुत्री दुःख का कारण है ’’।

          मैत्रेयनी संहिता : जुआ तथा शराब की भांति स्त्री, पुरूष का तीसरा मुख्य दोष है।

          गौतम धर्मसूत्र : कन्या का विवाह मासिक धर्म शुरू होने के पूर्व करना चाहिए।

वृहदारण्यक उपनिषद : जनक के दरबार में याज्ञवल्क्य तथा गार्गी के मध्य वाद-विवाद का उल्लेख प्राप्त होता है।

          गार्गी तथा मैत्रेयी इस युग की महान विदुषी नारियां थीं। ये याज्ञवल्क्य की पत्नी थीं।

शिक्षा :-

साधारणतया शिक्षा काल 12 वर्ष का होता था। स्त्रियों को भी शिक्षित किया जाता था। संभवतः आर्यों को लिपि का ज्ञान ई0पू0 700 में हो गया था।

धार्मिक स्थिति :-

यज्ञ :- इस काल को वेद वाद का युग भी कहा जा सकता है क्योंकि इस समय यज्ञ आडम्बर के प्रतीक हो गए थे। यज्ञों को मानव जीवन के 16 संस्कारों में जोड़ कर संस्कारों की संख्या 40 तक कर दी गई थी। वास्तविक धर्म यज्ञवेदी के तले दब कर रह गया।

देव स्थिति :- पूर्व के देवता वही थे किन्तु उनकी महत्ता में परिवर्तन हो गया। ऋग्वेद कालीन वरूण, इन्द्र तथा अग्नि का महत्व कम हो गया था तथा उनके स्थान पर रूद्र, नारायण तथा प्रजापति आ गए थे। इस काल में देवता मूलतः असुर संहारक हो गए थे।

          प्रजापति : यज्ञों के स्वामी

          नारायण : प्रधान यज्ञ पुरूष

व्रात्यस्तोम यज्ञ : अनार्यों को आर्यत्व प्रदान करने किया जाता था।

आर्थिक स्थिति :-

मुख्यतः व्यवसाय कृषि हो गया था। हस्तिनापुर से गन्ने की खेती का प्रादुर्भाव हुआ। कृषि भूमि राजा के संरक्षण में किसान की व्यक्तिगत थी। व्यापार प्रगति पर था। इस काल में सोना, चांदी भिज्ञ धातुएं थीं। व्यापार में विनिमय प्रणाली थी, विनिमय हेतु गाय, शतमान या निष्क का प्रयोग होता था।

राजनैतिक विन्यास :-

0पू0 छठवीं शताब्दि से पूर्व का पौराणिक इतिहास :- चूंकि इस काल में इतिहास जानने का प्रमुख स्त्रोत पुराण हैं अतः इसे पौराणिक इतिहास कहा जाता है।‘‘ सूत ’’ नामक अधिकारी ही राजाओं तथा देवताओं की वंशावलियां सुरक्षित रखता था। सर्वप्रथम पौराणिक इतिहास पर कार्य पर्जिटर ने किया है।

प्रलय से पूर्व का इतिहास :- वायु पुराण के अनुसार ब्रम्हा का पुत्र आनंद संसार का शासक था। आनंद ने वर्ण व्यवस्था तथा विवाह रीति स्थापित की किन्तु ये नियम शीघ्र ही नष्ट हो गए। जिन्हें उत्तराधिकारी ‘‘ मनु स्वयं भुव ’’ ने पुर्नस्थापित किए। ‘‘ मनु स्वयं भुव ’’ की राजधानी सरस्वती नदी के निकट थी। स्वयं भुव के दूसरे पुत्र उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव था जिसने विष्णु गोद में स्थान पाया था। इसी वंश में छठा राजा ‘‘ मनु चिक्षाषु ’’ था। चिक्षाषु का पुत्र ‘‘ वेन ’’ के अत्याचारी होने से प्रजा में विद्रोह हो गया तथा वह मारा गया तदुपरांत उसके पुत्र ‘‘ पृथु ’’ का राज्याभिषेक हुआ। पृथु के नाम पर ही पृथ्वी नाम पड़ा। पृथु का पांचवां वंशज ‘‘ दक्ष ’’ था जिसकी पुत्री का प्रपौत्र ‘‘ मनु वैवस्वत ’’ हुआ। जिसने प्रलय के समय मनुष्य जाति की रक्षा की।

प्रलय काल तथा राजा मनु वैवस्वत ( ई0पू0 300) :- शतपथ ब्राम्हण के अनुसार मनु वैवस्वत ने एक मछली की सहायता से स्वयं रक्षा की। मान्यता है कि प्रलयोपरांत सर्वप्रथम जमीन सोंरों (उ0प्र0) में दिखाई दी थी। इसी मनु वैवस्वत को भारत के समस्त राजवंशों का जनक माना जाता है।मनु वैवस्वत के नौ पुत्र तथा एक पुत्री थे। जिनमें सारा भारत विभाजित था। पुत्री ‘‘ इला ’’ स्त्री एवं पुरूष दोनों था।

          ‘‘ इक्ष्वाकु ’’ मनु का ज्येष्ठ पुत्र था। इसे मधदेश का शासन मिला एवं सूर्य वंश की स्थापना की। इक्ष्वाकु के पुत्र ‘‘ निमि/नेमि’’ से विदेह के राजवंश का उदय हुआ। नेमि के पुत्र मिथि के नाम पर विदेह वंश की राजधानी का नाम मिथिला पड़ा।

ययाति काल / ई0पू0 3000 से ई0पू0 2750/ :- मनु वैवस्वत  की पुत्री इला जो पुरूष भी थी के पुत्र ‘‘ पुरूरवस एल या पुरूरवा ’’ ने चंद्रवंशी राज्य की नींव डाली। इसे प्रतिष्ठान /इलाहाबाद/ का राज्य मिला। इसी चंद्र वंश का राज्य कान्यकुब्ज/कन्नौज/ तथा बनारस में स्थापित हुआ। पुरूरवा तथा अप्सरा उर्वशी की प्रेम कहानी बहुत प्रसिद्ध है। पुरूरवा अपने ब्राम्हण विरोधी आचरण के कारण ब्राम्हणों द्वारा मारा गया। पुरूरवा के पुत्र का नाम ‘‘ आयु ’’ तथा आयु का पुत्र ‘‘ नहुष ’’ था। नहुष का बेटा ‘‘ ययाति ’’ एक प्रख्यात विजेता था।

ययाति की दो पत्नियां थी - 1. देवयानी 2. शर्मिष्ठा।

ययाति के पांच पुत्र थे। 1. यदु 2. तुर्वसु 3. व्रह्यु 4. अनु 5. पुरू। प्रत्येक पुत्र ने एक नवीन राज वंश की नींव डाली।

1.       यदु : गुजरात में यादव वंष की नींव डाली जिसके वंशज श्री कृष्ण थे। इसकी दूसरी शाखा को हैहय वंश कहा गया है।

2.       पुरू : इसे पैतृक राज्य प्राप्त हुआ।

3.       द्रह्यु : द्रुह्य के वंश में कोई राजा नहीं हुआ (महाभारत) ।

4.       अनु : इसे परुश्नी (रावी) नदी का साम्राज्य मिला , इसे आनव भी कहे गया है

5.       तुर्वसु : तुर्वसु देवयानी और ययाति का द्वितीय पुत्र तथा यदु का छोटा भाई था। पिता को अपना यौवन देने से अस्वीकार करने पर ययाति ने उसे संतानहीन और म्लेच्छ राजा होने का शाप दिश था (महाभारत आदिपर्व ८४)।

मानधाता काल / ई0पू0 2750 से ई0पू0 2550/:-  सूर्यवंशी इक्ष्वाकु के 100 पुत्र थे जिनमें निमि, दण्ड, विकुकशि विख्यात हुए। इसी वंश में युवनाश्व द्वितीय का पुत्र मानधाता हुआ, जिसने अयोध्या को गौरव प्रदान किया। मानधाता ने पौरव तथा कान्यकुब्ज को परास्त कर द्रह्युओं को भी मार भगाया। द्रह्यु नरेश उत्तर पश्चिम की ओर भाग गया तथा ‘ गांधार ’ राज्य को स्थापित किया। मानधाता ने इन्द्र को हरा कर उसका आधा राज्य छीन लिया। मानधाता 100 अश्वमेध यज्ञ कराए, इसे विष्णु का पांचवां अवतार भी माना जाता है। मानधाता के पुत्र ‘‘ पुरकुन्स ’’ ने पिता की विजयों को नर्मदा के तट तक पहुंचा दिया।

हैहय वंश :- शीघ्र ही अयोध्या का राज्य दुर्बल हो गया तथा हैहय वंश ने प्रतिष्ठा प्राप्त की। हैहय वंशी राजा ने पौरव राजा को हरा कर काशी जीत लिया। इस वंश का प्रतापी राजा कृतवीर्य का पुत्र ‘‘ अर्जुन ’’ था। इसने अपनी सीमा हिमालय से नर्मदा के मुहाने कर ली। नर्मदा के निचले भाग में भृगुवंशी ‘‘ भर्गव ब्राम्हणों ’’ का आवास था। राजा कृतवीर्य तथा भृगु वंश के संघर्ष के कारण भृगु ब्राम्हण मध्य देश में आ गए। भृगु वंशी ब्राम्हण ऋषि ‘‘ऋचिक उर्व’’ के पुत्र ‘‘ ऋचिका ’’  ने कान्यकुब्ज के क्षत्रिय राजा गाधि की पुत्री ‘सत्यवती’ से विवाह किया जिससे ‘‘ जमदग्नि ’’ का जन्म हुआ। जमदग्नि के मामा ‘‘ विश्वरथ थे। जिन्हे कालांतर में ‘ विश्वामित्र ’ के नाम से जाना गया। जमदग्नि के तीन पुत्र थे। जमदग्नि का विवाह अयोध्या की राजकुमारी से हुआ था।

परशुराम काल /ई0पू0 2550 से ई0पू0 2350/ :- एक बार हैहय राज कृतवीर्य ने जमदग्नि के आश्रम से कामधेनु गाय चुरा ली अतः परशुराम /जमदग्नि का छोटा बेटा/ ने कृतवीर्य /जिसे सहस्त्रार्जुन भी कहा जाता है/ की हत्या कर दी। जिसकी जमदग्नि द्वारा निंदा करने पर परशुराम तीर्थ यात्रा पर चला गया उसके जाते ही कृतवीर्य के बेटे अर्जुन ने जमदग्नि की हत्या कर दी। अतः परशुराम ने सम्पूर्ण क्षत्रिय जाति को 21 बार नष्ट किया। संभवतः इस कार्य में अयोध्या तथा कान्यकुब्ज ने हैहय प्रतिरोध हेतु परशुराम का साथ दिया। संभवतः परशुराम ने हैहयों से 21 बार युद्ध लड़े।

इसी समय अयोध्या में राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र हुए जिसकी परीक्षा विश्वामित्र ने ली।

सगर :- शक्तिहीन हैहय पुनः शक्तिशाली हो गए उन्होंने हरिश्चंद्र के छठवें वंशज बाहु को मार भगाया। बाहु ने जंगल में शरण ली जहां सगर का जन्म हुआ। सगर ने हैहयों को हरा कर पुनः अयोध्या का राज्य प्राप्त किया तथा तत्कालीन भारत के सबसे बड़े साम्राज्य की स्थापना की।

छोटे छोटे राज्य :- सगर की मृत्योपरांत निम्न राज्य स्वतंत्र हो उठे :-

·      विदर्भ के यादवों ने उत्तर की ओर हैहय प्रदेश तक अधिकार कर लिया। विदर्भ के पौत्र चेदि ने यमुना के दक्षिण तट पर चैद्य वंश स्थापित किया।

·      पूर्व में आनव /अनु के वंशज/ राज्य का केन्द्र ‘‘ अंग ’’ था जो पांच राज्यों में बंट गया। आनव राज ‘ बलि ’ के बेटों के नाम पर पांच राज्यों के नाम 1. अंग 2. बंग 3. कलिंग 4. सुह्य 5. पुण्ड पड़ा। अंग की राजधानी मालिनी थी जो कालांतर में राजा ‘ चम्प ’ के नाम पर चम्पा / भागलपुर / बनी।

श्रीरामचंद्र काल / 23500पू0 से 19500पू0/ :- सगर के प्रपौत्र भागीरथ ने पुनः अयोध्या को प्रतिष्ठित किया किन्तु ‘‘ कल्मापाशपाद ’’ द्वारा गुरू वशिष्ठ के पुत्रों की हत्या करने से अयोध्या दो भागों में विभक्त हो गया तथा कलह 6-7 पीढ़ी तक जारी रही। अन्ततः राजा दिलीप (खटवांग) ने पुनः एक राज्य की स्थापना की उस समय अयोध्या का नाम बदल कर कौशल कर दिया। दिलीप के उत्तराधिकारियों में रघु, अज तथा दशरथ हुए। दशरथ का पुत्र राम ने अपना राज्य लव / कौशल/ तथा कुश / अयोध्या/ में बांट दिया। परन्तु कालान्तर में ये राज्य समाप्त हो गए।

पौरव :- मानधाता द्वारा नष्ट पुरू राज्य को सगर की मृत्यु के बाद चंद्रवंशी राजा दुष्यंत ने पुनः स्थापित किया। दुष्यंत का विवाह ‘ विष्वामित्र तथा मेनका ’ की पुत्री ‘‘ शकुंतला ’’ से हुआ। जिससे ‘‘ भरत ’’ का जन्म हुआ। पौरव राज्य प्रतिष्ठान से हट कर गंगा-यमुना के दोआब में स्थापित हो गया। भरत का पांचवां वंशज हस्तिन ने अपनी राजधानी हस्तिनापुर बनाई।

यादव :- यादवों के विभक्त राज्य को राजा मधु ने एकता प्रदान की। मधु के वंशज माधव कहलाए। यह विशाल / गुजरात से यमुना/ राज्य राजा सात्वत ने पुनः अपने चार बेटों में विभाजित कर दिया। उनमें अंधक ने अपनी राजधानी मथुरा तथा वृष्णि ने द्वारका बनाई।

कुरू :- पांचालों का सम्राट सुदास बना जिसने पौरवों को परास्त कर हस्तिनापुर जीत लिया। सुदास के दुर्बल उत्तराधिकारियों से राजा कुरू ने हस्तिनापुर वापस ले लिया। तथा भीष्म के हस्तेक्षेप से सुदास का वंशज द्रुपद पांचाल सम्राट बना। इससे द्रोणाचार्य ने उत्तरी पांचाल छीन लिया। द्रुपद का पुत्र धृष्टद्युम्न था तथा पुत्री द्रोपदी पाण्डव पत्नी बनी।

जरासंध :- कुरू वंशज ‘‘ वसु ’’ ने चेदि राज्य विजित कर अपने साम्राज्य को पांच बेटों में बांट दिया। सबसे बड़े बेटे वृहद्रथ को मगध मिला उसने अपनी राजधानी गिरिव्रज को बनाई। इसी वृहद्रथ का वंशज, प्रतापी राजा कंस के ससुर , जरासंध था, भीम के हाथों मारा गया। महाभारत के युद्ध में जरासंध का पुत्र सहदेव पाण्डवों के पक्ष से लड़ा।

श्रीकृष्ण युग /ई0पू0 19950 से ई0पू01400/  :-  कुरू के बाद यह वंश दुर्बल हो गया। अन्त में प्रदीप शासक बना जिसके तीन पुत्र थे। 1. देवापी 2. बाल्हीक 3. शान्तनु। इनमें से शान्तनु ने सत्ता प्राप्त की। शान्तनु का विवाह गंगा से हुआ जिससे देवव्रत का जन्म हुआ। शान्तनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से चित्रागंद तथा विचित्रवीर्य का जन्म हुआ। चित्रांगद, गंधर्वों से संघर्ष में मारा गया तथा विचित्रवीर्य भी शीघ्र ही तर गया। अतः उसकी रानियों से व्यास ऋषि द्वारा नियोग करने पर धृतराष्ट तथा पाण्डु का जन्म हुआ। जो क्रमशः कौरव तथा पाण्डवों के पिता थे। जिनमें हस्तिनापुर का महाभारत हुआ। महाभारत काल का प्रमुख यादव राजा कृतवर्मा कौरवों के पक्ष में था।

महाभारत के बाद :- पाण्डव अर्जुन के पौत्र परीक्षित को सत्ता सौंप कर हिमालय पर्वत पर चले गए। परीक्षित का पुत्र जन्मेजय हुआ इसने अपने पिता के हत्यारे नाग शासक तक्षक की हत्या करने यज्ञ किया था। किन्तु तक्षक बच गया। जन्मेजय का चौथा वंशज निचक्षु या निक्षासु के समय गंगा की बाढ़ में  हस्तिनापुर के बह जाने पर नवीन कुरू राजधानी कौशाम्बी बनाई गई। निचक्षु के 26वें राजा उदयन हुए। उदयन, महात्मा बुद्ध, अवंति के प्रद्योत तथा अजातशत्रु का समकालीन था। इस समय इस वंश का नाम वत्स वंश था।

अन्य समकालीन राज्य :- कौशल के इक्ष्वाकु मित्र वंश के नाम से शासक थे। पहले इक्ष्वाकु राजधानी अयोध्या थी। फिर साकेत तथा अंततः श्रावस्ती बनी। इसी वंश का शासक महाकौशल था जिसका पुत्र प्रसेनजित , बुद्ध का समकालीन था। इसने अपनी पुत्री का विवाह बिम्बिसार से किया।

महाकाव्य काल :- महाकाव्य काल एक पृथक नहीं अपितु उत्तर वैदिक काल में ही सम्मिलित माना जाता है।भारतीय महाकाव्यों में प्राचीनतम् महाकाव्य ‘ रामायण ’ है। इसमें लगभग 24000 श्लोक हैं। आदि काव्य रामायण के मूल रचयिता ‘ मर्हिषी वाल्मीक ’ हैं। रामायण से हिंदुओं का यवनों तथा शकों से संघर्ष का विवरण प्राप्त होता है।

                    कुरूक्षेत्र का युद्ध संभवतः ई0पू0 950 में हुआ था, जिसे महाभारत कहा गया है। महाभारत का रचना काल ई0पू0 चौथी सदी माना गया है जिसका वर्तमान स्वरूप पहली सदी तक आया आया।

·      व्यास ने 8800 श्लोक में जयसंहिता लिखी।

·      वैशम्पायन ने 24000 श्लोकों की भारत संहिता लिखी।

·      अंत में सौति ने हरिवंश नामक परिशिष्टि जोड़ कर महाभारत के 1 लाख श्लोक लिखे जिसं शतसाहस्त्री संहिता कहा गया।

अन्य विविध तथ्य

·      महाभारत में मगध, विदेह तथा यूनानी एवं सीथियन जातियों का उल्लेख है।

·      श्री कृष्ण को अंधक वृष्णि संध का राजा माना गया है।

·      विराज - भगवान विष्णु के पुत्र तथा प्रथम राजा थे। - पुराण के अनुसार

·      आतातायी राजा को पागल कुत्ते की तरह मार देना चाहिए।  - शांतिपर्व, महाभारत के अनुसार

 


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