सिन्धु घाटी की सभ्यता (Indus Valley Civilization)

 सिंधु घाटी की सभ्यता

सिंधु सभ्यता की खोज :-

                          सन् 1921 को राय बहादुर दयाराम साहनी ने हड़प्पा नामक स्थान से सर्व प्रथम इस सभ्यता की खोज का सूत्रपात किया। फिर सन् 1922 को श्री राखलदास बनर्जी ने मोहन जोदड़ो से अन्य साक्ष्य प्राप्त किए। अतः पुरातत्ववेत्ताओं के प्रयासों से यह सभ्यता प्रकाश में आई, जिसका विस्तार उत्तर में जम्मू से अखनूर से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने तक और पश्चिम में ब्लूचिस्तान के मकरान तट से लेकर उत्तर - पूर्व में मेरठ जिले तक था।

                          विद्वानों के मतानुसार इस सभ्यता का क्षेत्र त्रिभुजाकार था। चूंकि इस सभ्यता के प्रथम साक्ष्य सिंधु क्षेत्र से प्राप्त हुए अतः मार्शल ने इसको सिंधु घाटी की सभ्यता नाम दिया। तथा डॉ0 व्हीलर ने इसका समर्थन किया है।


सिंधु सभ्यता का प्रसार :-

                          फेयर सर्विस के अनुसार इस सभ्यता के निवासियों ने ऐसा स्थान चुना जहां की जलवायु गेंहू उत्पादन के लिए उपर्युक्त हो फिर भी अद्यतन खोजों पर आधारित प्रमुख स्थल निम्नलिखित हैंः-

ब्लूचिस्तान :- यहां सभ्यता के अवशेष निम्न जगहों से प्राप्त हुएः

सुत्कगेनडोर :- ईरान से लगी हुई पाकिस्तान के सीमा क्षेत्र में स्थित इस स्थल को सन् 1927 में स्टाइन ने  खोजा तदुपरांत सन् 1962 को डेल्स ने यहां से बंदरगाह, दुर्ग एवं निचले नगर की रूप रेखा प्राप्त की। यह स्थल गुजरात के लोथल से मैसोपोटामिया के साथ होने वाले व्यापारिक मार्ग पर स्थित था अतः संभव है कि यहां से मछली उत्पादन एवं निर्यात का कार्य किया जाता होगा। जैसा कि वर्तमान में ब्लुचिस्तान के समुद्री क्षेत्रों से हो रहा है।

सोत्काकोह :- इसकी खोज सन् 1952 में डेल्स ने की।

डाबरकोट :-

सिंधु  क्षेत्र के प्रमुख स्थल:-

मोहन जोदड़ो - मोहन जोदड़ो अर्थात् मृतकों का टीला। मोहन जोदड़ो सिंधु सभ्यता का सर्व ज्ञात स्थल है। जो कि वर्तमान पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में सिंध नदी के तट पद अवस्थित है। एक समय सिंध नदी मोहन जोदड़ों के पश्चिम से प्रवाहित होती थी जो कि वर्तमान में पूर्व दिशा की ओर से प्रवाहित होती है। इस नगर का कम से कम सात बार निर्माण एवं विनाश हुआ था क्योंकि व्हीलर ने इस नगर की सात तहों का पता लगाया है। इस नगर की नवीनतम सतह का अभी तक कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ है। यहां से प्राप्त अवशेष हड़प्पा की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं। पुरावशेषों से यहां वृहद स्नानागार 39 गुणा 23 गुणा 8, वृहद अन्नागार, महाविद्यालय भवन, सभा भवन आदि के विषय में महत्तवपूर्ण  जानकारी प्राप्त हुईं हैं। सर जॉन मार्शल ने इस वृहद स्नानागार को तत्कालीन विश्व का एक आश्चर्यजनक निर्माण कहा है।

इसके अतिरिक्त कांस्य निर्मित नृत्यरत नारी की मूर्ति , पुजारी की मूर्ति , मुद्रा पर अंकित पशुपति नाथ /शिव/ आदि महत्तवपूर्ण वस्तुएं प्राप्त हुई हैं।सन् 1921 में श्री राखलदास बनर्जी के बाद सन् 1923 - 24 में माधोस्वरूप वत्स तथा 1924 - 25 में काशीराम दीक्षित ने कार्य जारी रखा।

यहां से सूती कपड़े के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। यहां की अधिकांश जनता ‘‘ द्रविड़’’ थी।

हड़प्पा - इस सभ्यता की खोज का श्री गणेश सर्वप्रथम 1921 ई. में हड़प्पा में राय बहादुर दयाराम साहनी ने किया। रावी नदी के तट पर स्थित इस टीले की जानकारी सर्वप्रथम 1826 को चार्ल्स मर्सन तथा 1831 में कर्नल बर्न द्वारा प्राप्त हुई। यहां से नाशपाती के शक्ल के 16 अग्निकुण्ड प्राप्त हुए हैं। गोबर की राख व कोलतार के साक्ष्य भी यहां से प्राप्त हुए हैं। कांसा गलाने का प्राप्त यहां से प्राप्त हुए हैं। सभ्यता की सर्वाधिक मुहरें (891) 36.12 प्रतिशत। एकमात्र स्थान जहां से पत्थर की दो मूर्तियां प्राप्त हुईं हैं। जिनमें एक लाल पत्थर का नग्न पुरूष का धड़ है व दूसरी नर्तकी की है।12 कब्रों में से कांसे के दर्पण प्राप्त हुए हैं।

हड़प्पा सिंधु घाटी की सभ्यता का प्रमुख शहरी केन्द्र था। जो कि वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब सूबे में प्राचीन रावी नदी के तट पर अवस्थित है।

कोटदीजी :- सन् 1955 एवं 1957 में फजल अहमद खां ने यहां पर उत्खनन कराया। यहां पर एक अन्य कोटदीजी सभ्यता के भी साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

चनुन्हदड़ो :- सिंधु तट पर मोहनजोदड़ो से 80 मील दक्षिण में सन् 1931 को ननो गोपाल मजूमदार ने सर्वप्रथम इसकी खोज का कार्य आरम्भ किया। यह प्रमुख उत्पादन केन्द्र ¼manufacturing center) था। फिर सन् 1935 को मैके ने उत्खनन कर मनके, सीप, अस्थि, मुद्रा एवं दवात आदि प्राप्त कर यहां की कुशल कारीगरी से अवगत कराया। यहां से मुहरें बनाने वाले धातु के औजार भी प्राप्त हुए हैं। किन्तु किसी भी तरह का दुर्ग होने का प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ हैं।

पंजाब प्रान्त के प्रमुख स्थल-

रोपड़ :- सन् 1955 - 56 को यज्ञदत्त शर्मा ने इस जगह का अन्वेषण किया। यहां से एक मुद्रा भी प्राप्त हुई है। साथ ही एक कब्रिस्तान एवं तांबे की कुल्हाड़ी भी प्राप्त हुई है।

बाड़ा :- यहां से कुछ मृद भाण्ड सिंधु सभ्यता से पूर्व के हैं। यहां से प्राप्त सामग्री सिंधु सभ्यता के अवनति काल का प्रतिनिधित्व करती है।

संधोल - यहां से मनके , चूड़ियां आदि प्राप्त हुए हैं।

गनवेरीवाला - गनवेरीवाला पंजाब राज्य में अवस्थित है जो कि भारत एवं पाकिस्तान की सीमावर्ती क्षेत्र के अंर्तगत है। सर्वप्रथम इस स्थल को सर ऑरेल स्टीन एवं डॉ. एम.आर. मुगल ने सन् 1970 में प्रकाश में लाया। यह स्थल लगभग 80 हेक्टेयर के क्षेत्र में विस्तारित है जो कि माहिन जोदड़ो से अधिक है।

यह प्राचीन सरस्वती अथवा घग्गर नदी के तट पर था। इस स्थल की दूरी हड़प्पा एवं मोहन जोदड़ो दोनों स्थलों से समान है। गनवेरीवाला सभ्यता पांचवा बड़ा नगरीय स्थल था।

हरियाणा प्रान्त के प्रमुख स्थल -

बनावली :- प्राचीन सरस्वती (हिसार जिला) के तट पर  स्थित इस स्थल की खोज सन् 1973-74 में पुरातत्व विभाग के आर.एम.विष्ट ने की थी। यहां से सिंधु सभ्यता तथा इसके पूर्व की सामग्री भी प्राप्त हुई है। यहां से  हल की आकृति के खिलौने, सड़कें और जल निकास के अवशेष तथा जौ , तिल व सरसों का ढेर प्राप्त हुआ है।यहां से प्राप्त मृद भाण्डों में से कुछ में सिंधु लिपि के लेख भी प्राप्त हुए हैं। मातृ देवी की मूर्तियां व बांट भी प्राप्त हुए हैं। ये सभी उच्च कोटि का जीवन दर्शाते हैं। यह एक प्राक् हड़प्पा स्थल है।

मीत्ताथल :- भिवानी जिले में प्राचीन यमुना तट पर स्थित इस स्थल का उत्खनन कार्य सन् 1968 में पंजाब वि0वि0 चण्डीगढ़ द्वारा कराया गया। यहां से प्राप्त सामग्री कालीबंगा से प्राप्त पूर्वी सिंधु सभ्यता की सामग्री से मेल दर्षाती है।

राखीगढ़ी :- हरियाण के जिन्द जिले में स्थित इस पुरास्थल की खोज प्रो0 सूरजभान और आचार्य भगवान देव ने की थी। यहां से प्राप्त सामग्री में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एक मुद्रा है। जहां पर सिंधु लिपि में एक लेख है। यह स्थल हड़प्पा, माहन जोदड़ो और गनवेरीवाला से बड़ा है।

राजस्थान प्रान्त के प्रमुख स्थल :-

कालीबंगा :- प्राचनी सरस्वती नदी के तट पर स्थित यह स्थान गंगानगर जिले में स्थित है। सन् 1953 में ए. घोष ने इसकी खोज की। 1961 में डॉ. बी.डी. लाल एवं बी.के. थापड़ ने यहां खुदाई कार्य करवाया। मोहन जोदड़ो की तुलना में कालीबंगा एक दीनहीन बस्ती थी। उत्खनन में कब्रिस्तान, हल के निशान / जुते खेत/ अन्नागार व हवन कुण्ड के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।यहां के मकानों में कच्ची इ्रंटों का प्रयोग होता था। वास्तविकता में इस स्थान की खोज सन् 1942 में स्टाइन ने की थी।

उत्तर प्रदेश के प्रमुख स्थल :-

आलमगीर पुर :- हिण्डन नदी के तट पर मेरठ जिले में स्थित इस प्राच्य स्थल की खोज सन् 1958 में की गईं। यहां से सभ्यता के अवनति काल की सामग्री प्राप्त हुई है।

कौशाम्बी :-

गुजरात प्रान्त के प्रमुख स्थल :-

लोथल :- साबरमति व भागवास नदी के संगम पर खम्भात की खाड़ी के ऊपर गुजरात राज्य में अवस्थित इस जगह को सर्वप्रथम डॉ. एस.आर.राव ने सन् 1957 में खोजा। यह स्थान हड़प्पाई समुद्री स्थल का सर्वाधिक प्रसार वाला स्थल है। जिन्होंने बताया कि यहां इससे पूर्व भी लोग रहते थे। उत्खनन में यहां से मिटटी के काले लाल बर्तन एक गोदी के अवशेष जहां से पश्चिमी एशिया से जल मार्ग द्वारा व्यापारिक संबंध थै। यहां से मनके बनाने का कारखाना, धान, फारस की मोहर, घोड़े की लघु मृण्मूर्ति , अग्निकुण्ड व तकली प्राप्त हुए हैं।

         लोथल के 6 बार बसने के अवशेष मिलते हैं। संभवतः यह बाढ़ द्वारा नष्ट हुआ था। यहां पर युगल शवाधान एवं धान व बाजरे की खेती के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

धौलावीरा - धौलावीरा गुजरात राज्य के कच्छ के रण में Khadir Beyt ,अवस्थित है। 1990 के बाद खोजा गया यह एकमात्र स्थल है, जो कि हड़प्पा और माहन जोदड़ो से भी बड़ा है।

यहां से पत्थरों के सुरक्षित वास्तु संरचना प्राप्त हुए हैं। यहां से सिंधु लिपि में लिखित साइनबोर्ड भी प्राप्त हुआ है।

गोला धरो -

इस स्थल को बगसरा के नाम से  भी जाना जाता है। यह स्थल 1996 से 2004 के बीच प्रकाश में आया। यहां से प्राचीन सिंधु मुहर प्राप्त हुई है। ।

महाराष्ट्र प्रान्त के प्रमुख स्थल -

दैमाबाद : मुम्बई के निकट महाराष्ट्र राज्य में स्थित इस स्थल की खोज सन् 1958 में हुई। 

सिंधु सभ्यता को जानने के स्रोत :-

         मुद्राओं पर अंकित शब्दों के अतिरिक्त कोई अन्य लिखित सामग्री जो सभ्यता पर प्रकाश डाले उपलब्ध नहीं है। मुद्रा लिपि को अभी तक नहीं पढ़ा जा सका है अतः इस सभ्यता के विषय में जानने के लिए पूर्ण रूप से उत्खनन से प्राप्त नगर , मकान, पत्थर , प्रसाधन, कंकाल व बर्तन आदि मूल सामग्री पर ही आधारित होना पडता है।

सिंधु सभ्यता के निर्माता एवं निवासी :-

यह प्रश्न आज भी विवादास्पद है, फिर भी अद्यतन शोध कार्यों से तीन मत उभर कर आए हैं :-

1. मैसोपोटामिया की संस्कृति की देन :- व्हीलर इस मत के प्रतिपादक हैं, जो कि पूर्णतः ग्राह्य नहीं है।

2. बलूची संस्कृति की देन :- इस मत के प्रतिपादक फेयरसर्विस हैं, किन्तु इसके अकाट्य एवं निश्चित प्रमाण अनुपलब्ध हैं।

3. भारतीय संस्कृति :- श्री अमलानंद घोष के मतानुसार यह मत अधिक तर्क संगत है प्रतीत होता है। तथा इसे सर्वमान्य तथ्य के रूप में स्वीकार किया जाता है।

सिंधु निवासियों का सामाजिक जीवन :-

संरचना एवं जीवन :- परम्परागत रूप से समाज की इकाई परिवार ही थी। तथा परिवार अलग-अलग  निवास करते थे। समाज मातृसत्तात्मक थे, जो व्यवसाय के आधार पर चार भागों में विभाज्य थे।

1. विद्वान 2. योद्धा 3. व्यवसायी 4. श्रमजीवी

सामाजिक सम्पन्नता कारण निवासियों का युद्ध प्रेमी न होना प्रतीत होता है।

भोजन :- शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनों जरह के लोग थे। शाकाहारी भोजन में गेंहू, जौ, चावल / चाइल्ड के अनुसार/, मिठाईयां, खजूर, फल, तरबूज, नींबू, दूध और दही प्रमुख था। विभिन्न प्रकार की चटनी / सिल बट्टे प्राप्त  हुए हैं/ खाने के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। किन्तु मुख्य भोजन गेंहू ही था।

मांसाहार में गौ मांस, बकरी, बत्तख, मुर्गी, घड़ियाल आदि प्रचलित थे। सिंधु वासी पेय पदार्थों का भी उपयोग करते थे।

वेशभूषा और आभूषण :- वेशभूषा की जानकारी हेतु तत्कालीन मूर्तियों पर ही हम  आश्रित हैं। कपड़े साधारणतया सूती के ही पहनते थे। किन्तु उनी कपड़े भी प्रचलित थे। स्त्री-पुरूष दोनों के पहनावों में दो कपड़ों का इस्तेमाल होता था। स्वर्ण आभूषणों को देखकार लगता है कि ये आधुनिक बॉण्ड स्टीट , लण्दन से आए हों न कि पांच हजार वर्ष पूर्व के किसी प्रागैतिहासिक घर से। यह कथन सर जान मार्शल ने दिया है।

प्रसाधन सामग्री :- तत्कालीन स्त्रियां दर्पण, कंघी, काजल, सुरमा, सिन्दूर, बालों की पिन, इत्र एवं पावडर का प्रयोग करती थीं।

मनोरंजन के साधन :- शिकार खेलना, नाचना, गाना, बजाना, मुर्गों की लड़ाई व बच्चे खिलौनों से खेलते थे।

औषधियां :- हिरण बारह सिंहों के सींग, नीम की पत्ती व षिलाजीत के औषधीय गुणों से परिचित थे। कालीबंगा व लोथल से खोपड़ी की शल्य चिकित्सा के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

अस्त्र-शस्त्र :- ये ताम्र व कांस्य निर्मित थे। प्रायः कुल्हाड़ी, छुरा, बरछी, गौफन, कटार का बहुतायत प्रयोग करते थे। संभवतः सिंधु वासी को ढाल व शिरस्त्राण का ज्ञान न था किन्तु तीर कमान से परिचित थे।

आवागमन के साधन :- बैलगाड़ी या इक्का

मृतक संस्कार :- मार्शल के अनुसार मृतक संस्कार की तीन विधियां थीं।

1. पूर्ण समाधिकरण     2. आंशिक समाधिकरण         3. दाह कर्म

सिंधु निवासियों का आर्थिक जीवन :-

 कृषि :- यह मुख्य व्यवसाय था। गेंहू, जौ, कपास, मटर, तिल, व संभवतः चाल की खेती की जाती थी। जिन्हें विशाल अन्नागारों में रखा जाता था। तथा बाहर पीसने की व्यवस्था होती थी।

पशु पालन :- गाय, बैल, भैंस व भेड़ के भी अवषेष प्राप्त हुए हैं। उंट पालते थे पर ज्यादा नहीं। संभवतः यहां के निवासी घोड़े से अपरिचित थे।

व्यापार :- विदेशों से व्यापारिक संबंध थे। व्यापार जल एवं स्थल दोनों मार्गों से होता था। ये, प्रायः सोना, चांदी, सीसा, तांबा आदि आयात करते थे। पिगट के अनुसार दासों का व्यावार भी होता था। मैसोपोटामिया, अफगानिस्तान व मध्य एशिया से व्यापारिक संबंध थे। सिक्कों का प्रचलन न होने से वस्तु विनिमय का प्रयोग होता था।

माप तौल की दशमलव प्रणाली प्रचलित थी। तौलने की संभवतः सोलह के अनुपात में थी। विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का आयात दक्षिण और पूर्वी भारत, कश्मीर, कर्नाटक व नीलगिरी से होता था। तांबा, राजस्थान से प्राप्त होता था। स्लेट का आयात राजस्थान, गुड़गांव व कांगड़ा से होता था।

सिंधु निवासियों का धार्मिक जीवन  :-

सिंधु सभ्यता कालीन धर्म के विषय में जानने के लिए पूर्णतः पुरातात्विक स्त्रोतों पर निर्भर होना पड़ता है। इनके अलावा मैसोपोटामिया से प्राप्त लेख / जिन्हें पढ़ा जा चुका है/ से भी धार्मिक जानकारी प्राप्त होती है।

सिंधु सभ्यता के अवशेषों में मंदिर के साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए हैं।

मातृ देवी की पूजा :- मातृ देवी मूर्तियां धुंए में रंगी प्रापत हुईं हैं। संभवतः पूजन के समय सामने धूप जलाई जाती होगी। एक स्त्री की अर्धनग्न मूर्ति प्राप्त हुई है। मातृदेवी का स्वरूप अम्बा, काली आदि रूपों में पूजनीय था। हड़प्पा से शीर्षासनरत स्त्री, पौधे का जन्म देते हुए दृष्टव्य है जो पृथ्वी को मातृ स्वरूप में मानने का द्योतक है।

शिवपूजा :- पुरूष देवता की त्रिमुखी व त्रिनेत्री योगासन मुद्रा में मूर्ति को पशुपति शिव के रूप में मान्यता प्राप्त थी। /मुहरों पर अंकित/ तथा शिवलिंग रूपी पत्थरों की प्राप्ति से शिव पूजा की धारणा को प्रबल मान्यता प्राप्त हुई है।

योनि पूजा :- कुछ सीप, मिट्टी के छल्ले प्राप्त हुए हैं, जिन्हें अप्रामाणिक रूप से योनि का प्रतीक माना गया है।

पशु पूजा :- गाय की अपेक्षा बैल ज्यादा पूजनीय थे। इसकी जानकारी तत्कालीन चित्रों से प्राप्त होती है।पक्षियों में बत्तख को पवित्रतम माना जाता था।

सूर्य पूजा :- मुद्राओं से प्राप्त सूर्य, स्वास्तिक एवं पहियों के चिन्ह से सूर्योपसना की जानकारी प्राप्त होती है।

वृक्ष पूजा :- पीपल को पवित्रतम वृक्षों में माना जाता था।

नदी पूजा :- स्नानागारों व स्नानकुण्डों से जल पूजा का ज्ञान होता है।

अन्य प्रथाएं :-

1. आधुनिक समयानुसार धूप व अग्नि का भी प्रयोग करते थे।

2. भजन कीर्तन के भी संकेत मिलते हैं।

3. ताबीजों की प्राप्ति प्रचलित अंधविष्वासों को दर्षाती है।

सिंधु निवासियों की कला :-

भवन निर्माण कला  :- विशाल अन्नगृह, स्नानागार व नगर निवेश से ज्ञात होता है कि लोग इस कला में दक्ष थे।

·      मकानों का निर्माण सड़क के दोनों ओर किया जाता था।

·      खिड़की व दरवाजे मुख्य सड़क की ओर न थे।

·      दरवाजे, दीवार की समाप्ति के स्थान पर होते थे बीच में नहीं।

·      मोहन जोदड़ो के मकानों में कुंए थे किन्तु हड़प्पा में नहीं।

नगर योजनाः- मैके ने कहा है कि वे लंकाशायर के किसी आधुनिक नगर के अवशेष हैं। नगर नदियों के मुहाने पर बसाए गए थे। सड़कों के किनारे वृक्षारोपण होता था।

मूर्ति कला :- धातु, पाषाण व मिट्टी की मूर्तियां प्राप्त हुईं हैं। प्राप्त मावन मूर्तियां ठोस हैं, जबकि पशु मूर्तिंयां विशाल अदर से खोखली हैं। माहन जोदड़ो प्राप्त एक त्रिभंगी कांस्य मूर्ति उन्नत मूर्ति कला का ठोस प्रमाण है। डॉ. त्रिपाठी के अनुसार  यह मूर्ति ऐतिहासिक काल की किसी भी मूर्ति से अणिक उत्कृष्ट है। किन्तु वाशम ने इसको कलात्मक स्वीकार नहीं किया है।

संगीत कला :- तबला व ढोल की प्राप्ति संगीत प्रेम को दर्शाती है।

ताम्रपत्र लेखन :- वर्गाकार ताम्र पत्र प्राप्त हुए हैं, जिनके ओर मनुष्य व पशुओं की आकृति तथा दूसरी ओर लेख अंकित है।

सिंधु लिपि :- सिंधु लिपि भाव प्रधान चित्रात्मक लिपि है, जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। लिपि पढ़ने का सर्वप्रथम प्रयास सन् 1925 में वैडेल द्वारा किया गया। जिसकी तुलना सुमेरी लिपि से की है। इसे दांए से बांए लिखा माना गया है।

सिंधु निवासियों का राजनैतिक विन्यास

1. सिंधु प्रदेश के शासन पर पुरोहित वर्ग  का अधिकार था। - स्टुअर्ट पिगट

2. मोहन जोदड़ो का शासन राज तंत्रात्मक न हो कर जन ततंत्रात्मक था। - हण्टर

3. मोहन जोदड़ो का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथ में था। - मैके

4. सिंधु क्षेत्र की शासन व्यवस्था मध्यम वर्गीय जन तंत्रात्मक थी। - व्हीलर

अंततः शासन व्यवस्था उच्चकोटि की थी।

सिंधु सभ्यता का अंत एवं विनाश :-

·      जल प्लावन से

·      भूकम्प

·      संक्रामक रोग से

·      जल वायु परिवर्तन से

·      बाह्य आक्रमण - इसे मुख्य कारण के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसके प्रवर्तक पी. गार्डन चाइल्ड हैं। जिन्होने आर्य आक्रमण को इस सभ्यता विनाश का कारक माना है।एम. व्हीलर ने ऋग्वेद व पुरावशेषों के आधार पर इस तथ्य की पुष्टि की है।

·      विस्थापन – अनेक इतिहासकार मानते हैं इस सभ्यता का पतन एक साथ न होकर प्राकृतिक आपदाओं के कारण पलायन है.

अन्य विविध तथ्य :-

·      सिंधु सभ्यता से प्राप्त इ्र्रंटों का अनुपात उंःचौ:लं में 1:2:4 था।

·      सार्वजनिक वृहद स्नानागार में छः प्रवेश द्वार हैं।

·      उंट तथा घोड़े की न तो हड्डी मिली है और ना ही कोई चित्र प्राप्त हुआ है।

·      सुरकोत्ड़ा नामक स्थान से घोड़े के प्रथम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं जो कि संभवतः अवनति कालीन साक्ष्य हैं।

·      सिंधु वासियों को पांच धातुओं - सोना, चांदी, तांबा, सीसा और रांगा का ज्ञान था।

·      सिंधुवासी लोहे से अपरिचित थे। अतरंजीखेड़ा से अवश्य ही लोहे के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

·      इस सभ्यता की प्राप्त मूर्तियों में से बैठे हुए पुरूष की मूर्ति सर्वोत्तम है।

·      पाषाण मूर्ति हड़प्पा से तथा कांस्य प्रतिमा मोहन जोदड़ो से प्राप्त हुई है।

·      यह सभ्यता कांस्य युगीन सभ्यता मानी जाती है।

·      औजार ताम्र व कांस्य निर्मित थे। पाषाण भी प्रयुक्त होता था।

·      शव का पैर दक्षिण दिशा की ओर रख कर दफन करते थे। // यह विशेषता अन्य समकालीन सभ्यताओं      से पृथक थी//

·      सिंधु वासियों में परलोक तथा पुर्नजन्म की भावना थी।

·      सर्वाधिक मुहरें हड़प्पा से प्राप्त हुई हैं। कुल प्राप्त 2000 से अधिक मुहरों में 891 से अधिक मुहरें यहां से प्राप्त हुईं हैं।

·      सिंधु वासियों को चिकित्सा संबंधी ज्ञान था इसका ज्ञान लोथल नामक स्थान से प्राप्त होता है।

·      हड़प्पा से नीले रंग का साक्ष्य अप्राप्य है।

·      महान अन्नागार हड़प्पा से प्राप्त हुआ है।

·      महान स्नानागार मोहन जोदड़ो से प्राप्त हुआ है।

·      जहाजरानी की कला का श्रीगणेश सिंधु में ही हुआ।

·      गन्ना तथा दालों की जानकारी सिंधु वासियों को नहीं था।

·      हड़प्पा का उल्लेख ऋग्वेद में हरि यूपिया नाम से हुआ है।

·      महाराष्ट में चिन्हित पुरास्थल दैनाबाद के प्रति संदेह है कि इसका संबंध सिंधु सभ्यता से है या नहीं।

·      सिंधु लिपि को बांए से दांए पढ़ने और उसे तमिल भाषा में परिवर्तित करने का दावा करने वाले विद्वान रैवरेण्ड हैरास थे।

·      वर्तमान भारतीय जीवन जो सिंधु सभ्यता से प्रेरणा ले रहा है – धर्म

·      सिंधु व सुमेरियन सभ्यता में समान है - अन्न भण्डारण प्रणाली

·      कालीबंगा में पकी ईंटों से केवल नाली तथा कुंए बने थे।

·      सन् 1856 में चार्ल्स मैसन ने सर्वप्रथम इस स्थान को प्रकाश में लाए।

·      चांदी का प्राचीनतम साक्ष्य हड़प्पा संस्कृति से ही प्राप्त हुए हैं।

·      हड़प्पा सभ्यता को Proto - Historic मानने का कारण - लिपि की प्रामाणिकता तय न होना है।

·      मुहरों पर जहाज के चिन्ह हड़प्पा तथा मोहन जोदड़ों दोनों से प्राप्त हुए हैं।

·      योग दर्शन के क्षेत्र में हड़प्पा सभ्यता का योगदान अविस्मरणीय है।

·      मुहरों की प्राप्ति से धार्मिक दर्शन की विशेष जानकारी मिलती है।

·      जॉन मार्शल के अनुसार सभ्यता के मुख्य निर्माता ‘‘ द्रविड़ ’’ थे। परन्तु कुछ विद्वान मिश्रित जातियों को इसका निर्माता मानते हैं।

·      बाड़ा /पंजाब/ से प्राप्त सामग्री सभ्यता के अवनति काल को दर्शाती है।

·      ताम्र निर्मित एक इक्का गाड़ी हड़प्पा से प्राप्त हुई है।

·      धौलावीरा नवीनतम पुरास्थल है जिसके उत्खनन का कार्य आर.एस.विष्ट के द्वारा कराया है।सन् 1967-68 एवं सन्1990 में।

·      लोथल के अलावा गोदी प्राप्ति के साक्ष्य कुंतासी / बोबी-बू-टिम्बू/ से प्राप्त हुए हैं।

·      हड़प्पा सभ्यता को प्रकाश में लाने वाले प्रमुख पुरातात्विकविद् निम्न लिखित है :-

1. चार्ल्स मैसन - सन् 1826 में सव्रप्रथम हड़प्पा से ईंटे प्राप्त कीं।

2. कर्नल बर्न्स - सन् 1831 में राजा रणजीत सिंह से भेट यात्रा के दौरान मार्ग में हड़प्पा को देखा।

3. अलेक्जेण्डर कनिंघम - सन् 1853 में हड़प्पा के खण्डहरों का निरीक्षण किया।

4. सर जॉन मार्शल - सन् 1920 में सभ्यता की जानकारी हेतु प्रयास आरम्भ किए।

5. दयाराम साहनी - सन् 1921 में हड़प्पा नामक स्थान पर सर्वप्रथम खुदाई कार्य किया तथा प्राप्त अवशेषों के आधार पर पुरातात्विक नियमानुसार सभ्यता का नाम हड़प्पा की सभ्यता दिया गया।

6. राखल दास बनर्जी - सन् 1922 में सर्वप्रथम मोहन जोदड़ो में खुदाई कार्य कर सभ्यता का विस्तृत ज्ञान           दिया।

सिंधु सभ्यता के प्रमुख पुरास्थल और उनकी विशेषताएं :-

        स्थान                                             विशेषताएं

1. लोथल       - फारस की मुहरें, मकान के दरवाजे मुख्य मार्ग की ओर/अपवाद/, तीन युगल समाधि।

2. चहुनदड़ो     - मनके का शिल्प तथा कोई दुर्ग प्राप्त नहीं हुआ।

3. रंगपुर          -

4. हल्लूर        - तलवार बनाने का कारखाना।

5. ब्लूचिस्तान - तांबा प्राप्ति का वैकल्पिक स्थल।

6. खेतड़ी        - राजस्थान स्थित यह स्थल तांबा प्राप्ति का मुख्य स्थल था।

7. आदि चनल्लूर - कब्र में स्वर्ण मुकुट ।

8. कोटदीजी    - पत्थर के बाण प्राप्त।

9. अल्लादिनोह          - अति लघु पुरास्थल।

10. राना घुण्डई          - कोई नदी तट नहीं।

11. बनावली             - सड़के समकोण पर नहीं तिरछी काटती हैं।

12. मेहरगढ़               - कृषि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

 


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